19 फ़रवरी, 2017

अनजाने में


जब से देखा उसे यहाँ 
चाल ही बदल गई है 
बिना पहचाने अनजाने में 
वह चैन ले गई है |
कभी सोचा न था इस कदर 
दिल फैंक  वह होगी 
उसके बिना जिन्दगी 
बेरंग हो गई है |
उसके बिना यहाँ आना 
अच्छा नहीं लगता 
साथ  जब वह होती
जोडी बेमिसाल होती |
झरते मुंह से पुष्प
 खनखनाती आवाज उसकी 
उत्सुकता जगाती 
उसने क्या कहा होगा |
कभी यहाँ कभी वहां 
बिजली सी कौंध जाती  
वह जब भी यहाँ आती 
सोए जज्बात जगा जाती |
आशा

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16 फ़रवरी, 2017

संस्कार




आज की पीढ़ी
हो रही बेलगाम
संस्कार हीन |

भव्य शहर
संस्कार हैं विदेशी
अपने नहीं |

है महां मूर्ख
संस्कार न जानता
पिछड़ जाता |

संस्कार मिले
माता और पिता से
है भाग्यशाली |
आशा

15 फ़रवरी, 2017

मनुहार



उसके नयनों के वार
जैसे हों  पैनी कटार
आहत कर गए
जीना मुहाल कर गए |
कुछ नहीं सुहाता
दिन हो या वार
या भेजी गई सौगात
याद रहती बस
उस वार की
पैनी कटार के धार की 
उसके रूखे व्यवहार की |
उलझनों में फंसता जाता
यह तक भूल जाता
लाल गुलाब का वार है
ना कि कोई त्यौहार |
करना है प्यार का इज़हार
मनाना है उसे दस बार
धीरे धीरे कर मनुहार
न कि कर  प्रतिकार |
आशा




13 फ़रवरी, 2017

लाल गुलाब




दिया गुलाब का लाल फूल
सारी सीमायें भूल
दिल खोल कर रख दिया
मन में क्या था जता दिया
वह चित्र लिखी सी देख रही
हाथ से गुलाब लिया
थोड़ा झिझकी फिर शरमाई
शब्दों का टोटा पड़ गया
वह कुछ कह न पाई
नयनों की भाषा नयनों ने जानी
कहानी बनी बड़ी रूहानी |
आशा




11 फ़रवरी, 2017

गुड़िया (बाल कविता )



मेरी गुड़िया रंग रंगीली
बेहद प्यारी छवि  उसकी
दिन रात साथ  रहती
मुझे बहुत प्यारी लगती |
है  बहुत सलीके वाली
होशियारी विरासत में मिली
पढाई में सब से आगे
सभी की दुलारी है
अभी से है चिंता 
जब यह ससुराल  जाएगी
 क्या हाल होगा उसके बिना
पर जाना भी तो जरूरी है |
मैंने एक गुड्डा देखा
पर उसने नापसंद  किया
फिर अपनी पसंद बताई
पर वह पूरी न हो  पाई |
अब भी तलाश जारी है
गुडिया जैसा रंग रंगीला
जब  पसंद आ जाएगा
वही उस का वर होगा |
आशा

07 फ़रवरी, 2017

सियासत




थोथी सियासत ने
जान डाली सांसत में
अब तो उसके भी
लाले पड़ गए हैं
संयम तक नहीं
बरत पाते
सरेआम इज्जत
गवा रहे हैं
बिना सोचे
 किये कटाक्ष
बहुत मंहगे पड़ रहे हैं
वार पर वार और
आरोपों के पलट वार
कीचढ़ में पत्थर
डालने सा है
और कुछ हो या न हो
खुद  पर
कीचड़ के छींटे
उड़ रहे हैं |
आशा


05 फ़रवरी, 2017

दोस्ती



की सच्चे मन से दोस्ती
प्रसन्न रहा करते थे
दिन रात उसी के गीत गाते
बढ़ चढ़ कर उन्हेंदोहराते
पर पहचान नहीं पाए
 पीछे से जिसने वार किया
दोस्ती पर कीचड़ उछला
शर्म से सर झुक गया
शब्दों के प्रहारों ने
कोमल मन छलनी किया
अब तो इस नाम से ही
दहशत होने लगती है
नफ़रत बढ़ने लगती है
फिर से विचार मन में आता
बेमुरब्बत दोस्त से तो
बिना दोस्त ही रहना बेहतर
दोस्ती पर तो दाग न लगता
मन में मलाल न आता |
आशा