13 जुलाई, 2013

कई रूप धरती के




ऋतुओं के आने जाने से
दृश्य बदलते रहते
धरती  के सजने सवरने के

अंदाज बदलते रहते |
उमढ घुमड़ कर आते
काली जुल्फों से लहराते बदरा
प्यार भरे अंदाज में
 सराबोर कर जाते बदरा
वह हरा लिवास धारण करती
धानी चूनर लहराती
खेतों की रानी हो जाती |
वासंती बयार जब चलती
वह फिर अपना चोला बदलती
पीत वसन पहने झूमती
नज़र जहां तक जाती
वह वासंती नज़र आती |
जब सर्द हवा दस्तक देती
वह धवल दिखाई देती
प्रातः काल चुहल करती
रश्मियों के संग खेलती
उनके रंग में कभी रंगती
तो  कभी श्वेता नजर आती |
पतझड़ को वह सह न पाती
अधिक उदास हो जाती
डाली से बिछुड़े पत्तों सी
वह पीली भूरी हो जाती
विरहनी सी राह देखती
अपने प्रियतम के आने की |
ग्रीष्म ऋतु के आते ही
तेवर उसके बदल जाते
वह तपती अंगारे सी
परिधान ऐसा धारण करती
कुछ अधिक सुर्ख  हो जाती
धरती नित्य सजती सवरती
नए रूप धारण करती |
आशा


12 जुलाई, 2013

मेरी चतुर्थ पुस्तक" शब्द प्रपात " का कवर पेज


मेरी पुस्तक "शब्द प्रपात "(काव्य संकलन ) का कवर पेज आपके समक्ष है |लिखिए आपको कैसा लगा |बहुत जल्दी पुस्तक पूर्ण हो जाएगीऔर सब के समक्ष होगी |
          आशा

11 जुलाई, 2013

किस पर श्रद्धा

कई मुखौटे लगे या नकाब से ढके
असली चहरे पहचाने नहीं जाते
दोहरा जीवन जीते लोग 
व्यवहार भी अलग अलग  
उजागर होती जब असलियत
उद्विग्न होते छटपटाते 
कितने कुरूप नज़र आते 
यदि पहले से जानते 
कितने कुत्सित भाव भरे हैं मन में 
एक भी शब्द सम्मान का 
लव तक न आता
दुनिया में जो चल रहा है 
ध्यान उस पर भी न जाता 
मन नफ़रत से न भरता 
दुनिया की हकीकत
 यदि जान ली होती 
चेहरे की असलियत 
पहचान ली होती 
इतने सदमें से न गुजरना पड़ता 
किसी अपने से सलाह यदि लेली होती 
यह दिन न देखना पड़ता
अब किसी पर ऐतवार नहीं होता 
हर जिस्म के अन्दर 
एक भूखा  भेडिया दिखाई देता 
सत्य क्या और असत्य क्या 
जानने की जिज्ञासा शांत नहीं होती 
चैन मन का हर लेती 
सभ्यता शर्मसार होती नजर आती 
गहरी व्यथा छोड़ जाती 
किसी पर श्रद्धा रखने का
मन नहीं होता |







09 जुलाई, 2013

सदुपयोग समय का



सारा दिन व्यर्थ गवाया
कोइ काम रास न आया
पर पश्च्याताप अवश्य
बारम्बार हुआ  
 क्यूं नहीं सदउपयोग
समय का कर पाया |
पर अब क्या फ़ायदा
दुःख मनाने से
 मन में संताप जगाने से
बीता समय लौटेगा नहीं
जो कुछ पीछे छूट गया
वह भी हाथ में आना नहीं |
एक शिक्षा अवश्य मिली
समय का महत्व समझ
उसे शीश के अग्र भाग से पकड़ो
एक एक पल का सदुपयोग करो
मन लगे या न लगे
कर्म का महत्व समझो |
आशा
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07 जुलाई, 2013

मकसद


मैंने चुना है एक मकसद
वहां तक पहुँचने का
एकता के सूत्र में
सब को बांधने का
नहीं जानती कहाँ तक
सफलता पाऊँगी
कितनी सीड़ी चढ़ पाऊँगी |
यह तो जानती हूँ
करना होगा
 कठिन प्रयास
पूर्ण लगन से
तन मन धन से
पर नहीं जानती
कितना बाँध पाऊँगी गैरों को
अपनेपन के बंधन में |
समझ रही हूँ
गैरों से व्यवहार अपनों सा
इतना सहज भी नहीं
कई बाधाएं
 पथ बाधित करेंगी
यदि उनसे भयभीत हुई
मन कुंठित हुआ
तब मकसद
 पूर्ण न हो पाएगा |
पर इतना जानती हूँ
कदम पीछे हटाना
मैंने नहीं सीखा
पथ से भटक जाना
मुझे नहीं आता |
हूँ इसीलिए आशान्वित
जो मार्ग चुना है मैंने
अडिग उसी पर रहूँगी
एकता का बधन
इतना सुदृढ़  होगा
कभी टूट न पाएगा |
आशा

03 जुलाई, 2013

पर मनुष्य बदलता जाता



श्वेत अश्वों के रथ पर सवार
सूर्य निरंतर आता जाता
अपने पथ से कभी न भटकता
प्रातः रश्मियों से स्वागत
सांझ ढले अस्ताचल जाना
यही क्रम  अनवरत चलता
चन्दा की चौदह कलाएं
बिखेरतीं अपनी अदाएं
कभी चांदनी रात होती
 कभी रात अंधेरी आती
ज्योत्सना इतनी स्निग्ध होती
 कोई सानी नहीं जिसकी
यही क्रम सदा चलता रहता
कोइ परिवर्तन नहीं होता
दाग भी दिखाई देता
चाँद  में फिर भी
वह उसे नहीं छिपाता
निरंतरता में कोई भी
 व्यवधान नहीं आता
सृष्टि की विशिष्ट कृति
 मानव है सबसे भिन्न
जुगनू सा जीवन उसका
टिमटिमाता सिमट जाता
पर कोइ दो एक से नहीं
भिन्न व्यवहार आपस में  उनके
भिन्न भिन्न आचरण उनके
कदम कदम पर बदलाव
कोइ निरंतरता नहीं
यदि दाग कोई लग जाए
छूटे या ना छूटे
उसे फर्क नहीं पड़ता
सहजता से उसे छिपा जाता
प्रकृति में परिवर्तन न होता
पर मनुष्य बदलता जाता
आचरण व्यवहार विचार
सभी में परिवर्तन होता |
आशा