01 मार्च, 2013

एक कली

कली खिली बिरवाही में  
महकी चहकी 
पहचान बनी 
रंग भरा प्रातः ने 
संध्या ने रूप संवारा
जीवन हुआ 
 सरस सुनहरा 
पर धूप सहन ना कर पाई 
वह कुम्हलाई 
तब साथ निभा कर
 उसे हंसाया
 मंद पवन के झोंके ने 
तरंग  उमंग  की जगी
तरुनाई छाने लगी
है इतनी अल्हड़
जब  भी निगाहें ठहरती 
टकटकी सी लग जाती 
देखती ही रह जातीं 
वह सकुचाती 
अपने आप में 
 सिमटना चाहती 
यही है कुछ ख़ास 
जो  नितांत उसका अपना 
देखते तो हैं पर 
उसे छू नहीं सकते 
पर सपने में भी उससे 
दूर हो नहीं सकते |
आशा 


27 फ़रवरी, 2013

आतंकवादी

कटुता ने पैर पसारे 
शुचिता से कोसों दूर हुआ 
अनजाने में जाने कब 
अजीब सा परिवर्तन हुआ 
सही गलत का भेद भी 
मन समझ नहीं पाया 
सहमें सिमटे कोमल भाव 
रुके ठिठक कर रह गए 
हावी हुआ बस एक विचार
कैसे किसे आहत करे |
धमाका करते वक्त भी 
ना दिल कांपा ना हाथ रुके 
ऐसी अफ़रातफ़री मची 
मानवता चीत्कार उठी
फंसे निरीह लोग ही 
हादसे का शिकार हुए 
आहत हुए ,कई मरे 
अनगिनत घर तवा़ह हुए
शातिरों की जमात का तब भी 
एक भी बन्दा विदा न हुआ 
शायद उन जैसों के लिए 
ऊपर भी जगह नहीं 
गुनाहों की  माफी़ के लिए 
कहीं भी पनाह नहीं |
आशा


25 फ़रवरी, 2013

प्रीत की डोर

रिश्ता अनोखा प्रीत का 
चहु और नजर आता 
पूरी कायनात में 
विरला ही इससे बच पाता |
होती उपस्थिति इसकी 
सृष्टि के कण कण में 
जो पा न सके इसको 
लगता बड़ा अकिंचन  सा |
इसको नहीं  जिसने जाना
 जीवन उसका व्यर्थ गया 
जन्म से मृत्यु तक
बड़ा अभाव ग्रस्त रहा |
खग मृग हों या पशु पक्षी
पृथ्वी पर हिलमिल रहते 
आकाश से नाता जोड़ते 
जल से कभी न मुख मोड़ते |
प्रीत की डोर में बंधे
अपना संबल खोजते 
तभी संतुलन रह पाता
सृष्टि के जर्रे जर्रे में  |
सभी बंधे इस रिश्ते में 
 चंद लोग  क्यूं महरूम इससे
आपसी बैर पाल रहे
सृष्टि का संतुलन बिगाड़ रहे ?


22 फ़रवरी, 2013

रक्षक सरहद का

माँ ने सिखाया
 गुर स्वावलंबी होने का
पिता ने बलवान बनाया 
'निडर बनो '
यह पाठ सिखाया 
बड़े लाड़ से पाला पोसा 
व्यक्तित्व विशिष्ट 
निखर कर आया 
बचपन से ही सुनी गुनी 
कहानियां  बहादुरी की 
देश हित उत्सर्ग की 
मन में ललग जगी 
सेना में भर्ती होने की 
दृढ़ निश्चय रंग लाया 
सिर गर्व से  उन्नत हुआ 
की सरहद की निगहवानी
अब हमारी सरहद को 
कोई कैसे लांघ पाएगा 
आत्मबल से आच्छादित 
रक्षा कवच दृढ़ता का 
कोई कैसे तोड़ पाएगा |
आशा 

19 फ़रवरी, 2013

हैं कितने अरमां

हैं कितने अरमां 
तेरी चरण रज पाने के 
हो तल्लीन तेरी सेवा में 
तुझी में रम जाने के 
प्रातः सुनती मधुर  धुन 
या भक्ति  भाव से  भरे भजन
बस एक ही विनती करती 
इस भव सागर के बंधन से
करो मेरा उद्धार प्रभू 
बाधाएं मेरी कम न होतीं 
चहु ओर से घेरे रहतीं 
उनकी संख्या अनंत 
जाने कितने  सहे 
गर्म हवाओं के थपेड़े 
इस  काँटों से भरे मार्ग पर 
आत्मा लहुलुहान हुई 
जीर्ण क्षीण काया हुई 
फिर भी आशा कम न हुई 
तेरे द्वार आने की 
है बड़ा अरमान 
तुझ में खो जाने का 
भवसागर कर पार 
तेरे दर पर आने का |



17 फ़रवरी, 2013

कैसी उदासी

यह कैसी उदासी चेहरे पर 
आये स्वेद कण माथे पर 
कुछ तो ऐसा है अवश्य 
जो शब्द बन्धक  हो गए 
लवों तक आ कर रुक गए 
यह दुविधा यह बैचैनी 
क्यूं लग रही व्यर्थ सी 
भाव कहीं  अपनत्व का
 दिखाई नहीं देता 
व्यवहार तुम्हारा रूखा
लगता बेगानों सा
क्या कुछ घटित हुआ
इन चंद दिनों में 
जिसकी कोइ खबर तक नहीं
फिर भी अपनों से
यह दुराव कैसा
 लाख भावों को छुपाओ
हम से यह अलगाव कैसा
अपने दिल की सुनो
कुछ मन की कहो
तभी होगा निदान
हर उस समस्या का
जो सात पर्दों में छिपी है
कस कर थामें है बांह
उन शब्दों की उन बिम्बों की
जिन्हें बाहर आने नहीं देती
आज तुम्हारी यह उदासी
बहुत कुछ कह गयी
कुछ अनकहा रहा भी तो क्या
गैरों सा व्यवहार तुम्हारा
सब कुछ बता गया |

आशा 




15 फ़रवरी, 2013

व़जूद मेरा


अपना व़जूद कहाँ खोजूं
फलक पर ,जमीन पर
 या जल के अन्धकार के अन्दर 
सोच सोच   कर थक गयी
लगा  पहुँच से बाहर वह
मन  मसोस कर रह गयी
फिर उठी उठ कर सम्हली
बंधनों में बंधा खुद को देख
कोशिश की मुक्त होने की 
असफल रही आहत हुई 
निराशा ही हाथ लगी 
रौशनी की एक किरण से 
एक अंकुर आस का जागा
जाने कब प्रस्फुटित हुआ 
नव चेतना से भरी 
खोजने लगी अस्तित्व अपना 
वह सोया पडा था 
घर के ही एक कौने में 
दुबका हुआ था वहीँ 
जहां किसी की नजर न थी 
जागृति ने झझकोरा 
क्यूं व्यर्थ उसे गवाऊं 
हैं ऐसे  कई कार्य 
जो अधूरे मेरे बिना 
तभी एक अहसास जागा 
वह जगह मेरी नहीं 
क्यूं जान नहीं पाई 
है व़जूद मेरा अपना 
यहीं इसी दुनिया में  |

आशा