20 जुलाई, 2017

मनमीत



फिर एक बार आनन पर 
मीठी मुस्कान आई है ! 
जाने कैसी है बात 
पुन: चमक आई है ! 
हर शब्द साहित्य का 
कुछ तो अर्थ रखता है 
हर अर्थ में नव भाव हैं 
हर भाव में एक बंधन है 
इस बंधन में स्पंदन है 
यहीं स्पंदन में है 
निहित भाव प्रेम का 
जिसने प्यास जगाई है !
यही भाव नहीं बदलते हैं 
स्थाई भाव बंधन 
प्यार के संचार के 
जिसमें है अनुराग भरपूर 
दमकता आनन दर्प से 
दर्प का नूर कभी न मिटता 
यही है निशानी सच्चे साथी की 
जो किताबों से है दूर 
पर सत्य के नज़दीक 
हर पल नया अहसास 
जगाने में लगा है ! 


चित्र - गूगल से साभार 
आशा सक्सेना 




16 जुलाई, 2017

न आई वर्षा



चहुँ ओर घिरे बादल 
बरसा न एक बूँद पानी 
जन-जन बूँद बूँद को तरसा 
बेहाल ताकता महाशून्य में 
यह कैसा अन्याय 
कहीं धरा जल मग्न 
कहीं सूखे से बेहाल 
आखिर यह भेद भाव क्यों 
क्यों नहीं दृष्टि समान 
कहीं करते लोग पूजा अर्चन 
बड़े-बड़े अनुष्ठान 
कहीं उज्जैनी मनती 
कहीं होते भजन कीर्तन 
यह है आस्था का सवाल 
हे प्रभु यह कैसा अन्याय 
जल बिन तरस रहा 
जनमानस का एक तबका 
दूसरा करता स्वागत वर्षा का 
दादुर मोर पपीहा करते आह्वान 
वर्षा जल के आने का 
कोयल मधुर गीत गाती 
पास बुलाती अपने जीवन धन को 
क्यों नहीं आये अभी तक 
देती उलाहना प्रियतम को 
धरा चाहती चूनर धानी 
अपने साजन को रिझाने को ! 


आशा सक्सेना