26 नवंबर, 2017

स्वीकार



व्यस्तता भरे जीवन में 
वह ऐसी खोई कि 
खुद को ही भूल गयी,
दिन और रात में 
ज़िंदगी एक ही सी हो गयी !
नहीं कोई परिवर्तन
आसपास रिक्तता का साम्राज्य 
और मस्तिष्क मशीन सा 
हुआ विचारों में मंदी का आलम 
ऐसा भी नहीं कि खुशियों ने 
कभी दी ही नहीं दस्तक 
मन के दरवाज़े पर 
लेकिन बंद द्वार 
न तो खुलता था ना ही खुला !
बाह्य आवरण 
जिसे उसने ओढ़ रखा था 
और सीमा पार करना वर्जित 
मन में झाँक कर देखा 
वह अकेली ही न थी ज़िम्मेदार 
आसपास की दुनिया भी तो थी 
उतनी ही गुनाहगार 
अब है बहुत उदास 
उदासी पीछा नहीं छोड़ती 
ना ही वह कोई परिवर्तन चाहती 
सब कुछ कर लिया है 
उसने अब स्वीकार ! 



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