26 मई, 2015

विविध रूप धरा के


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अदभुद है यह  धरा
जिस विधि उसे निहारें
नयी सी लगे
मन चकित करे |
प्रातः दुपहर संध्या बीते
फिर साम्ऱाज्य अन्धकार का होता
यही क्रम चलता रहता
परिवर्तन कभी न होता |
सागर नदियाँ पर्वत माला
मरू भूमि भरी सिक्ता कण से
कही धरा पर हरियाली है
दलदल की भी कमीं नहीं |
सागर में अथाह जल खारा
 प्यास तक बुझा न पाता
है  अनगिनत जीवों की शरणस्थली
अमूल्य संपदा छिपी यहाँ  |
नदियाँ मीठा जल लातीं
जब सागर से मिलतीं
बहुत कुछ बहा कर ले जातीं
हरेभरे मैदान धरा का रूप निखारते |
दीखती शांत बहुत पर
 क्रोधित भी हो जाती जब तब
भूकम्प  भूस्खलन अति वृष्टि
हैं वक्र दृष्टि की देंन  उसकी |
अधिक क्रोध जब सह न पाती
ज्वालामुखी कहीं  हो जाती
आग उगलती लावा बहता
जब क्रोध से उबरती |
है आखिर वह भी जननी
माता सी स्वभाव में
कभी नरम तो कभी गरम
फिर भी अपनी गरिमा रखती |
है वह बहुआयामी
चाहे जब रूप बदलतीं
सृष्टि की जन्म दात्री
किसी से न हारती |
आशा






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