08 सितंबर, 2014

विचरण कविता लोक में

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विचरण कविता लोक में
स्वप्न जगत से कम नहीं
हर शब्द प्रभावित करता
निहित भावों की सुगंध से |
दस्तक दिल के द्वार पर
चंचल मन स्पंदित करती
द्रुत गति से ह्रदय धड़कता
वहां प्रवेश करने में |
जब पहला कदम बढाया
सब कुछ नया नया सा था
पैरों में होता  कम्पन
आगे बढ़ने न देता |
राह कठिन पर मन हठी
रुका नहीं बढ़ता गया
बाधाएं सारी पार कर
मार्ग प्रशस्त करता गया |
आज हूँ जिस मोड़ पर
भाव मुखर होते हैं
स्वप्नों को बुन पाती हूँ
शब्दों के जालक में |
आशा

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