07 दिसंबर, 2013

एक शिकायत



राम तुम्हारी नायक छवि ने
जन मानस में वास किया
प्रजावत्सल राजा को
उसने सिंहासनारूढ़ किया |
तुम्हारे असाधारण गुणों को
कोई यूं ही याद नहीं करता
वे थे सबसे भिन्न
सभी जानते थे |
सब के प्रति व्यवहार तुम्हारा
स्नेहपूर्ण होता था
सदा तुम्हारा हाथ
न्याय हेतु उठता था |
जाने कितने गुण छिपे थे
रूपवान व्यक्तित्व में
इसी लिए तुम विशिष्ट रहे
जन जन के मन में |
पर राम मुझे है
एक शिकायत तुमसे
तुमने क्यूँ अन्याय किया
अपनी पत्नी सीता से |
एक पत्नी व्रत धारण किया
वन वन भटके जिसके लिए
पर निकाल बाहर किया
एक अकिंचन के कहने से |
क्या कोई कर्तव्य न था
गर्भवती सीता के प्रति
जब कि जानते थे
दोष न था उसमें कहीं |
अग्नि परीक्षा उसने दी थी
क्या वह पर्याप्त न थी
वह पृथ्वी  में समाई
तुम्हारी आत्मा पर बोझ हुई
क्या यह अन्याय न था तुम्हारा
फिर भी लोग तुम्हें  पूजते हैं
आदर्श तुम्हें मानते हैं |
आशा 

05 दिसंबर, 2013

विचारों की श्रंखला



हूँ स्वतंत्रता की पक्षधर
पर हाथ बंधे हैं
आजादी का अर्थ  जानती हूँ
पर जीवन की हर सांस
किसी न किसी परिपाटी में
उलझी है और
संस्कारों के बोझ तले
दबी सहमी है |
स्वतंत्रता है अधिकार मेरा
किताबों में पढ़ा है पर
आज तक अनुभव न हुआ
 कर्तव्यों का बोझ लिए
जीवन खडा है |
उदास हूँ
तरस आता है खुद पर 
होता अन्धकार हावी
जाने कब होगा सबेरा |
व्यर्थ की रोकाटोकी
अब रास नहीं आती
अनगिनत वर्जनाएं
व्यथित करती जातीं |
अब कोई बच्ची  नहीं
जो भय मन में पालूँ
कर्तव्य से मुंह मोड़ कर
पलायन करूं  |
चाहती हूँ रखूँ
अस्तित्व अक्षून्य अपना
ना हो बाधित
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
अवाध गति से बढ़ती जाए
विचारों की श्रंखला |
आशा

03 दिसंबर, 2013

वह किसे पूज रहा था |

एक नागनाथ एक सांपनाथ 
निकले बिल से एक साथ 
कुछ कदम भी साथ न चले 
छिड़ी दौनों में धमासान 
पहले वे हंस बोल रहे थे 
फिर बहस ने जगह बनाई 
दौनों ने अपने पक्ष बताए 
जब इससे  मन नहीं भरा 
अपशब्दों की बारिश हुई 
हाथापाई की नौबत आई 
जो बेचारा आया था
वहां बांबी पूजन को 
हतप्रभ था यह दृश्य देख 
पूजन का थाल हाथ से छूटा 
यह कैसा अपशगुन हुआ 
शोर बढ़ने लगा भीड़ जुटाने लगी 
तालियों के शोर में 
असली मुद्दे खो गए 
व्यर्थ के तर्क कुतर्क में 
सारे कार्य रहे अधूरे 
एक भी पूर्ण न हो पाया 
सफलता का सहरा 
यहाँ वहां सजता रहा 
झूमा झटकी में 
एकाएक नीचे गिरा 
धुल धूसरित हुआ 
भीड़ का एक भाग
आँखें फाड़े देख रहा था 
सोच भी गायब था
 वह किसे पूज रहा था |
आशा






क्षणिकाएं (भाग २)

(1)
मन से मन की बात यदि ना हो पाए 
मन चाही मुराद यदि मिल न पाए 
मन दुखी तब क्यूं न हो 
बेमौसम का राग वह क्यूँ गाए |
(२)
सुनी गुनी कही बातें 
वजन तो रखती हैं 
पर हैं कितने लोग 
जो उन पर अमल करते हैं |
(३)

मैंने सजाई थी महफिल
हंसने हंसाने को
पर देखी सिर्फ तानाकशी
खुशी गायब हो गयी
ज्ञान न था दिलों में
इतना विष घुला है
प्यार का तो ऊपरी दिखावा है
हर इंसान का दोहरा चेहरा है |..
(४)
 मधुमास में
 पतझड़ की बातें
शोभा नहीं देतीं
खुशी के आलम में
उदासी भर देतीं |
आशा

02 दिसंबर, 2013

है बोझ तू




ए जिन्दगी है बोझ तू
ढोते ढोते थक गया हूँ
कैसे तुझसे मुक्ति पाऊँ
सोचने में अक्षम हूँ
तूने कभी हंसना सिखाया था
समय के साथ भी
चलना सिखाया था
मैंने बड़ी शिद्दत से
 उसे सीख लिया था
फिर क्यूं आज
 होती  जा रही  तू
दूर बहुत दूर मुझसे
बढ़ रहा है बोझ दिल पर
गहन उदासी गहराई है
सोच उभरने लगता है
कहीं भूल तो नहीं हुई मुझसे
या ऐसा क्या  हुआ  
कि छिटक कर दूर
 भी न हुई मुझसे
मुझे अकेलेपन  का है अहसास
घबराहट भी नहीं होती
परन्तु कुछ प्रश्न ऐसे हैं
जो अनुत्तरित ही रहते
उत्तर मिल नहीं पाते
फिर तुझसे क्यूं सांझा करूं
बिना बात तेरा बोझ सहूँ
अब बहुत हुआ बहुत सहा
ए जिन्दगी कर मुक्त मुझे
तुझसे छुटकारा चाहता हूँ 
मैं सोना चाहता हूँ |
आशा