03 अगस्त, 2013

क्षण परिवर्तन का


व्यस्तता भरे जीवन में
वह ढूंड़ता सुकून
खोजता बहाने
हंसने और हंसाने के |
भौतिकता के  इस युग में
समय यूं ही निकल जाता
पर हाथ कुछ भी न आता
एक दिन ठीक दिखाई देता
दूसरे दिन चारपाई पकड़ता
अधिकाँश सलाहकार बनाते
मुफ्त में तरकीवें बताते
स्वास्थ्य में सुधार के लिए
चाहे कोइ काढ़ा जिसे
 भूले से भी न चखा हो
ना ही अजमाया हो
बहुत स्वास्थ्य वर्धक बताते
वह हर नुस्खा अजमाता
बद से बदतर होता जाता
जब कोइ कारण खोज न पाता
व्यस्तता पर झुंझलाता
लगता जैसे सारी मुसीबतें
बस वही झेल रहा हो
भौतिकता में लिप्त
दूर प्रकृति से होता जाता
घबराता परेशान होता
खोजता खुशी आस पास
पर तब भी प्रकृति के पास जा
अपना दुःख न बाँट पाता |

15 टिप्‍पणियां:

  1. सही है समय ही ऐसा है, बहुत सशक्त भाव.

    रामराम.

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    1. नमस्ते रामपुरिया जी |टिप्पणी हेतु धन्यवाद

      हटाएं
  2. कल 04/08/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  3. आपकी यह रचना आज शनिवार (03-08-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.

    जवाब देंहटाएं
  4. ठीक कहा प्रकृति के पास क्‍यों नहीं जाता भौतिकता से ग्रस्‍त मनुष्‍य।

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  5. भय में जो है .. इस प्राकृति से खिलवाड़ जो किया है मनुष्य ने ... उसके पास जाए भी तो कैसे ...

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  6. प्रकृति से दूर जाकर ही मनुष्य हर किस्म की लाइलाज बीमारियों से ग्रस्त हो जाता है ! सशक्त भाव लिये खूबसूरत रचना !

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