31 जनवरी, 2013

साजिश किसी की


खतरा सर पर मंडराया
दिन में स्वप्न नजर आया 
किरच किरच हो बिखरा
वजूद उसका शीशे सा
न जाने कब दरका
अक्स उसका आईने  सा
अहसास न हुआ
टुकड़े कब हुए
यहाँ वहाँ बिखरे
दर्द नहीं जाना
स्वप्न  में खोया रहा
जब हुई चुभन गहरे तक
दूभर हुआ चलना
रक्त रंजित फर्श पर
तब भी नादाँ 
पहचान  नहीं पाया
वह थी साजिश किसी की
दिल को दुखाने की
उसको फंसाने की |

11 टिप्‍पणियां:

  1. लोग अपने स्वार्थ के लिए अक्सर दूसरो
    का दिल दुखते है.. यथार्थ कहती रचना..

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  2. बहुत सुन्दर और सटीक रचना...

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  3. कभी-कभी कौन मुखौटा चढ़ाये वार कर जाता है हम नहीं जान पाते ! सतर्क रहने को प्रेरित करती सुन्दर अभिव्यक्ति !

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