27 जुलाई, 2012

उपन्यास सम्राट प्रेमचंद


उपन्यास सम्राट श्री प्रेमचन्द (1880-1936) का असली नाम धनपत राय श्रीवास्तव था |हिन्दी और उर्दू दौनों ही भाषा पर उनका  सामान अधिकार था |अपने लेखन के लिए दौनों ही भाषाओं का उपयोग किया प्रारम्भ में उर्दू नें लिखा फिर बाद में हिन्दी में |साहित्य में यथार्थवादी परम्परा की नीव रखी |उन्हें हिन्दी कहानी का पितामह माना गया है |उस समय की परिस्थितियों का इतना सजीव वर्णन उनकी रचनाओं में है कि आज भी उनका उतना ही महत्त्व है जो पहले था |३३ वर्ष के रचनात्मक जीवन में वे साहित्य की ऐसी विरासत छोड़ गए जो गुणात्मक दृष्टि से अमूल्य है |अपने साहित्य में जीवन के विभिन्न रूपों को बहुत मनोयोग से उकेरा है |उन्हें शत शत नमन |
यह छोटी सी रचना है :-
जिसने जन्म लिया
उसे तो जाना ही है
लंबा सफर जीवन का
जो पीछे छूट गया
आने वाली पीढ़ी  के लिए
खजाने सा छोड़ जाना है
सशक्त लेखिनी के उदगारों से
गहराई तक रची बसी
कालजई रचनाएँ
हैं महत्त्व पूर्ण  आज भी
बीता कल तो रीत गया
पर वर्तमान में भी
जीवंत उसे कर जाता है |
आशा


25 जुलाई, 2012

आदत सी हो गयी है

कुछ बड़े कुछ छोटे छोटे 
 समेटे हुए बहुत कुछ
 कल आज या भविष्य की 
या कल्पना जगत की 
 कुछ कहते कुछ छिपा जाते 
रंगीन या श्वेत श्याम
 चित्रों से सजाए जाते 
 विश्वसनीय दिखाई देते
 पर सारे सच भी नहीं होते
 होते स्वतंत्र विचारों के पक्षघर
 फिर भी प्रभावित किसी न किसी
से कुछ उपयोगी कुछ अनुपयोगी
 सामिग्री परोसते सजा कर
 विभिन्न कौनों में तस्वीरें भी लुभातीं
 बहुत कुछ कहना चाहतीं 
आदत सी हो गयी है
 सर्व प्रथम प्रातः
 उसे हाथ में थामने की 
 उससे चिपके रहने की
 सरसरी नजर से उसे टटोलने की
 यदि किसी दिन ना मिल पाए
 चाय में चीनी भी कम लगती 
 आदत जो पड़ गयी है
 हाथ में कप चाय का ले
 सुबह अखबार पढने की |

23 जुलाई, 2012

था उसका कैसा बचपन


 जाने कब बचपन बीता
यादें भर शेष रह गईं
थी न कोई चिंता
ना ही जिम्मेदारी कोई
खेलना खाना और सो जाना
चुपके से नजर बचा कर
गली के  बच्चों में खेलना
पकडे जाने पर घर बुलाया जाना
कभी प्यार से कभी डपट कर
जाने से वहाँ रोका जाना
तरसी निगाहों से देखना
उन खेलते बच्चों को
मिट्टी के घर बनाते
सजाते सवारते
कभी तोड़ कर पुनः बनाते
किसी से कुट्टी किसी से दोस्ती
अधिक समय तक वह भी न रहती
लड़ते झगड़ते दौड़ते भागते
बैर मन में कोई न पालते
ना फिक्र खाने की ना ही चिंता घर की
ना सोच छोटे बड़े का
ना भेद भाव ऊँच नीच का
सब साथ ही खेलते 
साथ  साथ रहते
वह बेचारा अकेला
कब तक खेले
उन बेजान खिलौनों से
ऊपर से अनुशासन झेले
यह करो यह न करो
वह सोच नहीं पाता
मन मसोस कर रह जाता
ललचाई निगाहों से ताकता
उन गली के बच्चों को
अकेलापन उसे सालता
था उसका कैसा बचपन |
आशा