18 जून, 2011

क्यूँ दोष दूं किसी को


सुबह से शाम तक

फिरता रहता हूँ

सड़क पर

यहाँ वहाँ |

फटी कमीज पहने

कुछ खोजता रहता हूँ

शायद वह मिल जाए

मेरे दिल की दवा बन जाए |

मेरी गरीबी

मेरी बेचारगी

कोई समझ नहीं सकता

जिसे मैं भोग रहा हूँ |

एक दिन मैंने देखा

वह खुले बदन

ठण्ड से काँप रहा था

ना जाने क्यूँ

मुझे दया आई

अपनी गरीबी याद आई

कमीज उतारी अपनी

उसे ही पहना दी |

उसकी आँखों की चमक देख

संतुष्टि का भाव देख

मन में अपार शान्ति आई |

बस अब मेरे साथी हैं

यह फटा कुर्ता और पायजामा |

तेल बरसों से

बालों ने न देखा

आयना भी ना देखा

कभी खाया कभी भूखा रहा

फिर भी हाथ ना फैलाया |

क्या करू हूँ गरीब

समाज से ठुकराया गया

यह जिंदगी है ही ऐसी

कुछ भी न कर पाया |

गरीबी के दंशों से

बच भी नहीं पाया |

क्यूँ दोष दूं किसी को

हूँ पर कटे पक्षी सा

फिर भी रहता हूँ

अपनी मस्ती में |

जहां किसी का दखल नहीं है

कोई पूंछने वाला नहीं है

मुझे किसी की

ना ही किसी को

मेरी जरूरत है |

आशा

17 जून, 2011

अब वह कॉलेज कहाँ


कॉलेज की वे यादें

आज भी भूल नहीं पाती

मन में ऐसी बसी हैं

अक्सर याद आती हैं |

प्राध्यापक थे विद्वान

अपने विषयों के मर्मग्य

उच्च स्तरीय अध्यापन निपुण

और अनुकरणीय |

विद्यार्थी कम होते थे

स्वानुशासित रहते थे

कई गतिविधियां

खेल कूद और सांस्कृतिक भी

सौहार्द्र पूर्ण होती थीं |

उनमें भाग लेने की ललक

अजीब उत्साह भारती थी

जब जीत सुनिश्चित होती थी

या पुरूस्कार मिलता था

तालियों से स्वागत

गौरान्वित करता था |

थी एक मसखरों कई टोली

था काम गेट पर खड़े रहना

आते जाते लोगों को

बिना बात छेड़ते रहना

फिर भी बंधे थे मर्यादा से |

रिक्त काल खण्डों में

बागीचा था उन की बैठक

चुटकुले और शेर शायरी

या हास परिहास में

व्यस्त रहते थे|

सब के नाम रखे गए थे

जब भी कोई चर्चा होती थी

होता था प्रयोग उनका

हँसने का सामान जुट जाता था |

हंसी मजाक और चुहलबाजी

तक सब थे सीमित

लड़के और लडकियां आपस में

यदा कडा ही मिलते थे |

दत्त चित्त हो पढते थे

प्रोफेसर की नजर बचा

कक्षा में कभी लिख कर

बातें भी करते थे |

जब भी अवसर मिलता था

शरारतों का पिटारा खुलता था

हँसते थे हंसाते थे

पर दुखी किसी को ना करते थे |

अब वैसा समय कहाँ

ना ही वैसे अध्यापक हैं

और नहीं विद्यार्थी पहले से

आज तो कॉलेज लगते हैं

राजनीति के अखाड़े से |

आशा

15 जून, 2011

प्रक्रिया परिवर्तन की



बोया बीज पौधा उगा

जाने कब पेड़ बन गया

कली से फूल

और फिर फल बन गया

यह परिवर्तन कब हुआ

जान नहीं पाया |

रंग बिरंगी तितली

उड़ती फिरती डाल डाल

मकरंद चुरा कर फूलों का

ले जाती जाने कहाँ

यह रंग रूप कहाँ से पाया

जान नहीं पाया |

नन्हां बच्चा

बढते बढते जाने कब

वयस्क हो गया

और फिर बूढा हुआ

परिवर्तन तो देखा

पर कैसे हुआ कब हुआ

अनुभव ही नहीं हुआ |

कब परिवर्तन होते हैं

दिन में या रात में

या सतत होते रहते हैं

प्रकृति के आँचल में

राज न जान पाया |

है यह करिश्मा प्रकृति का

या कोई निर्देश नियति का

इससे भी अनजान रहा

पर उत्सुक हूँ अवश्य

जानना चाहता हूँ

कब होती है प्रक्रिया

तिल तिल बढ़ने की |

आशा

है सम्बन्ध असंभव

है सामान्य कद काठी ,काला रंग भ्रमर सा
रिश्ते की चाहत ने उसे ,बेकल बनाया है |

तेज पैनी निगाह से ,पहले देखता रहा
दिखाए झूठे सपने ,उसे बहकाया है |

उसकी बातें सभी को ,प्रभावित कर जातीं
अपनी झूठी बातों से ,दुःख पहुंचाया है |

सौ बात की एक बात ,सम्बन्ध है असंभव
उसके व्यवहार ने ,मन को दुखाया है |

आशा

13 जून, 2011

स्वार्थ सर्वोपरी


सारी सत्ता सारा बैभव

यहीं छूट जाता है

बस यादे रह जाती हैं

व्यक्तित्व की छाप की |

आकर्षण उनका भी

उन लोगों तक ही

सिमट जाता है

यदि कोई काम

उनका किया हो

या कोई अहसान

उन पर किया हो |

कुछ लोग ऐसे भी हैं

होता कोई न प्रभाव जिन पर

जैसे ही काम निकल जाता है

रास्ता तक बदल जाता है |

कहीं कुछ भी होता रहे

अनजान बने रहते हैं

भूले से भी यदि

पहुंच गये

तटस्थ भाव

अपना लेते हैं

जैसे पह्चानते ही न हों |

क्यूँ कि संवेदनाएं

मर गई हैं

वे तो वर्तमान में जीते हैं

कल क्या होगा

नहीं सोचते |

यदि दुनिया के सितम

बढ़ गए

उन्हें कंधा कौन देगा

उनके दुःखों को

बांटने के लिए |

आशा