16 अप्रैल, 2011

विभिन्न आयाम सौंदर्य के

सभ्यता विकसित हुई
सौन्दर्य बोध भी हुआ
प्रारम्भ हुआ दौर
सजाने ओर सवरने का |
सुडौल देह दाड़िम दन्त पंक्ति
ओर गालों में पड़ते डिम्पल
होते केंद्र आकर्षण के
केश विन्यास विशिष्ट होता था
बढाता था ओर इसे |
कमर तक बल खाती चोटी
चेहरा चूमती काकुल
सोलह श्रृंगार कर कामिनी
लुभाती अपने प्रियतम को |
हिरणी से चंचल कजरारे नयन
ताम्बुल रचित रक्तिम अधर
लगती थी गज गामिनी सी
शायद उसे ही उकेरा गया था
प्रस्तर की प्रतिमाओं में |
धीरे से परिवर्तन आया
लम्बी बलखाती चोटी
जुड़े में सिमटने लगी
पर था उसका अपना आकर्षण |
अब कटे लहराते खुले बाल
बालाओं की पसंद बने
आधुनीक कहलाने की होड़ में
वे छोटे होने लगे |
पुरुषों में भी परिवर्तन आया
दाढी बढ़ाई मूंछें रंगीं
कुछ अलग दिखने की चाह में
बाल तक रंगने लगे |
वय प्राप्त लोग भी
कैसे पीछे रह जाते
कुछ आदत या युवा दिखने की चाहत
बाल रंगना न छूट पाया |
जब बालों में पतझड़ आया
उम्र ने भी प्रभाव दिखाया
पहले तो उन्हें रंगा सवारा
फिर भी जब असंतोष रहा
कह दिया, है गंज
निशानी विद्वत्ता की |
आशा



14 अप्रैल, 2011

प्रेम के प्रतीक


प्रकृती के आँचल में
जहाँ कई प्राणी आश्रय लिये थे
था एक सुरम्य सरोवर
रहता था जिस के समीप
श्याम वर्ण सारस का जोड़ा |
लंबा कद लालिमा लिये सर
ओर लम्बी सुन्दर ग्रीवा
सदा साथ रहते थे
कभी जुदा ना होते थे |
नैसर्गिक प्रेम था उनमें
जो मनुष्य में लुप्त हो रहा
वे स्वप्नों में जीते थे
सदा प्रसन्न रहते थे |
एक सरोवर से अन्य तक
उड़ना और लौट कर आना
अपनी भाषा में ऊंचे स्वर में
इक दूजे से बतियाना
था यही जीवन उनका |
प्रेमालाप भी होता था
पास आ कर
एक दूसरे की ग्रीवा सहला कर
बड़े प्रसन्न होते थे |
उनका चलना ,उनका उड़ना
जल में चोंच डाल
आहार खोजना
मनभावन दृश्य होता था |
जिसने भी देखे ये क्रिया कलाप
उसने ही सराहा प्यार के अनोखे अंदाज को
कुछ तो ऐसे भी थे
उनके प्यार की मिसाल देते थे |
समय के क्रूर हाथों ने
इस प्यार को ना समझ पाया
क्षुधा पूर्ति हेतु
किसी ने एक को अपना शिकार बनाया |
दूसरा सारस उदास हुआ
जल त्यागा
भोजन भी त्यागा
क्रंदन करता इधर उधर भटका |
जिसने भी यह हालत देखी
सोचा कितना
क्रूर होगा वह
जिसने इसे बिछोह दिया
थी जहां पहले खुशी
अब थी व्यथा ही व्यथा |
एक सुबह लोगों ने देखा
वह भी दम तोड़ चुका था
चारों ओर सन्नाटा था
सारस युगल अब ना था
पर यादें उनकी बाकी थीं |

आशा












13 अप्रैल, 2011

पहला प्यार


होती है प्रीत वह भावना
जो कभी समाप्त नहीं होती
कोमल भावनाओं का संचार
होता जाता अंतर मन में |
दिन दिन नहीं रहता
रात रात नहीं लगती
मन करता रमण उसी में |
प्यार है ऐसा जज्बा
जिसे भुलाया नहीं जाता
आकर्षण और समर्पण
होते
निहित इस में |
भूल
नहीं पाता कोई इसे
रहता अहसास इसका
जिंदगी के
आख़िरी
क्षण तक |
आवश्यक नहीं वह मिल पाये
जब अन्य किसी से नाता जुड़ जाये
उसकी निकटता पा कुछ तो मन बदलता है
पर यह प्यार नहीं समझौता है |
जो मिला नहीं उसकी यादें
धुँधली सी होने लगती हैं
पर उन यादों की ऊष्मा
एकांत क्षणों में, स्वप्नों में
बारम्बार सताती है
मन में दबी चिंगारी
ज्वाला बन जाती है |
प्यार पहला ही होता सच्चा
दूसरा मात्र समझौता है|
वह प्यार क्या
जिसकी याद नहीं आये
होता बहुत भाग्य शाली
जो उस तक पहुँच पाये |

आशा



11 अप्रैल, 2011

बदनाम हो गये



जब भी देखा तुम्हें

तुम अनदेखी कर चली गईं

कई बार यत्न किये मिलने के

वे भी सम्भव ना हो पाए

चूंकि हैसियत कमतर थी

पैगाम शादी का भी स्वीकार ना हुआ |

एक अवसर ऐसा भी आया

निगाहें चार तुमसे हुईं

नयनों की भाषा ना समझा

तुम क्या चाहती थीं

जान नहीं पाया |

घर में लोगों का आना जाना

और शादी की गहमागहमीं

मैं भी व्यस्त होने लगा

सभी से मिलने जुलने लगा

चाहे बेमन से ही सही |

हाथों में चूडियों की खनक

हिना से हथेलियाँ लाल

जब नजरें तुमनें उठा

सजल नयनों से मुझे देख

जल्दी से आंसू पोंछ लिये

झुका लिया निगाहों को |

डोली में बैठ जानें की तैयारी देख

सुन दिल की आवाज

मिलने को कदम बढाए भी

पर समाज का ख्याल आते ही

इस विचार को झटक दिया

उसे मन में ही दफन किया |

देखी तुम्हारी विदाई

गहन उदासी में डूबा

वह भी इतनी गहराई

चेहरे तक से झलकने लगी

लोगों ने कुछ भांप लिया

फुसफुसाहट चर्चा में बदली

तुम तो चली गईं लेकिन

हम तो बिना प्यार किये ही

बदनाम हो गए |


आशा






10 अप्रैल, 2011

है ऐसा क्या तुम में


हो मेरे ह्रदय की धडकन
तुम में ही समाहित मेरा मन
तुम्हारी इच्छा थी
मैं कुछ लिखूं
पर सोचता ही रह गया
तुम पर क्या लिखूं |
तुम में छिपी कई कलाएं
मैं गाना तक नहीं जानता
है हम में इतना अंतर
जितना पृथ्वी और अम्बर के अंदर
फिर भी अलग नहीं हम
मिले रहे क्षितिज की तरह
मैं अधिक ही व्यस्त रहा
फिर भी दूरी सह ना सका
कई बार लौट कर आया
जब भी कोई तकरार हुई
क्रोध पर काबू किया
भुला दिया उसे
असहयोग तक दर्ज न किया |
जब भी कभी मनन करता हूँ
सोचता ही रह जाता हूँ
है ऐसा क्या तुममें
मुझे पूरा ही
बदल कर रख दिया |
यह दैहिक मोह नहीं लगता
बैचारिक सामंजस्य भी नहीं ,
कार्य कुशल तो सभी होते हैं
कर्त्तव्य परायण भी ।
पर ना जाने तुम में है क्या ?
लगता जन्म जन्मांतर का साथ
जिसे निभाया बहुत जतन से
अब ना रहे कोई आकांक्षा अधूरी
संतुष्टि हो जीवन में |

आशा