12 मार्च, 2010

विषमता

हे करुणाकर, हे अभयंकर
क्यूँ सबकी अरज नहीं सुनता
भूखों को अन्न नहीं देता
निर्धन को निर्धन रखता है |
जब कोई समस्या आती है
निर्धन को ही खाती है
महँगाई की मार उसे
भूखे पेट सुलाती है |
कोई नेता नहीं मरता
कहीं धनवान नहीं फँसता
बिना गेट के फाटक पर
केवल निर्धन ही कटता है |
कैसा तेरा न्याय अनोखा
धनिकों का घर भरता है
नेता यदि आड़े आए
उसको भी खुश रखता है |
जब आता भूकंप कभी
दरार न होती महलों में
केवल घर तो निर्धन का ही
ताश के घर सा ढहता है |
जो गरीबी में जन्मा
निर्धनता से मरता है !
घावों में टीस उभरती है
पस तिल-तिल करके रिसता है|
नेता हो यदि बीमार कभी
इलाज विदेश में होता है
आम आदमी तो बस
अंतिम साँसें ही गिनता है |
तेरी लाठी बेआवाज
सब पर वार नहीं करती
निर्धन पिसता जाता है
धनवान अधिक पा जाता है |
दिन दूना रात चौगुना
नेता फलता जाता है
एक नहीं फल पाये तो
अन्यों को उकसाता है |
क्यों बनाया अंतर इतना
क्यों न्याय सही ना कर पाया ?
हे कमलाकर, हे परमेश्वर
यह है तेरी कैसी माया |

आशा

11 मार्च, 2010

ऐसे देखा वनराज

मुझे नई जगह देखने और नए स्थानों पर घूमने मेंबहुत आनंद आता है |कुछ समय पूर्व गुजरात जाने का अवसर मिला |सोमनाथ और द्वारिका जाना है ,सोच कर ही मन प्रफुल्लित होने लगा |जल्दी ही आरक्षण भी करवा लिया |
जैसे ही ट्रेन चली ,लगा बहुत दिनों की तमन्ना बस पूरी हुई जाती है |ट्रेन की गति के साथ ही मन भी कल्पना जगत में विचरण करने लगा |कब नींद आई पता ही नहीं चला |जब नींद खुली अहमदाबाद आने वाला था |जल्दी से
सामान समेटा और स्टेशन पर उतर गए व् बस स्टॉप की और चल पड़े |
द्वारिका जाने वाली बस तो जा चुकी थी |सोमनाथ जाने वाली बस रात को आठ बजे जाती थी |अतः दिन भर अहमदाबाद घूमा |ठीक समाय पर बस स्टॉप आ कर अपनी आरक्षित सीट पर बैठ गए |इतने थके हुए थे कि पता ही नहीं चला कि कब अहमदाबाद पीछे रह गया |
नींद के आगोश में ऐसे खोये कि बेरवाल आ कर ही आँख खुली |वहां से सोमनाथ के लिए एक मोटर साइकल
पर बने टेम्पो की सबारी की और गन्तब्य तक पहुंचे |सुबह कि ठंडी हवा ,समुद्र का किनारा और मीठा नारियल
पानी ,मन को बहुत भाया |पास के ही होटल में ठहर कर थोडा विश्राम किया और सोम नाथ जी के दर्शन किये |
अब हमारे पास सारा दिन पड़ा था |सोचा क्यों न गिरी अभ्यारण्य जाएं | होटल वाले ने टेक्सी की व्यवस्था कर
दी |हम फिर से बेरवाल होते हुए गिरी अभयारण्य की और चल दिए|
चारो और हरियाली और पक्षियों का कलरव ,मन में उत्साह भरने लगा |रास्ता कब कट गया पता ही नहीं चला |
वहां जा कर टिकिट खरीदे और सफारी में जाने के लिए अपने नम्बर का इंतजार करने लगे |इंतज़ार के ये क्षण
बहुत कठिन थे |कुछ लौट कर आने वालों से पता चला कि वे सिंह नहीं देख सके |वह शायद भोजन कर कहीं निकल गया था |
मन में उदासी छाने लगी |सोचा यदि वनराज ही नहीं दिखा तो इतनी दूर आने से क्या लाभ |इतने में जीप आ
गयी और उस पर सवार हो अपने गंतब्य कि और चल पड़े |हमारे साथ ८ लोग और भी थे |साथ आया गाइड बता
रहा था "रात को सिंह राज ने बड़ा शिकार किया था |अब कहीं सो रहा होगा |मैं यदि सिंह के दीदार न करा पाऊं
तो कैसा गाइड ?आप तो निश्चिन्त रहो साहब वह हमें जरूर मिलेगा |"
जीप में अब हम छोटी २ पगडंडियों पर घूम रहे थे |चारों और धूलही धूल,हरियाली तो केवल नदी के किनारे ही
थी |बड़े पेड़ जरूर दिखाई दे रहे थे |एक जीप लौट कर आ रही थी |गाइड ने उससे बात कीऔर तुरंत ही अपना रास्ता बदलने को कहा |हम लोगों को सुई पटक सन्नाटा बनाए रखने को कहा |जीप की गति बहुत धीमी करवा ली |
जैसे ही जीप रुकी हमने देखा कि लगभग १० फिट कि दूरी पर वनराज सोया हुआ था |उसके विशालकाय शरीर
में
न तो कोई हलचल थी न ही आवाज |वह शिकार खा कर दोपहर कि धूप का आनंद ले रहा था |उसने धीरे से आँखे
खोलीं ,इधर उधर देखा और फिर से सोने कि मुद्रा में आ गया |कल्पना के परे था कि इतना शांत वन राज होगा |तभी गाइड नीचे उतरा और एक छोटा सा कंकड उसकी और फेका |वनराज ने सर उठाया ,हुनकर भरी और फिर आँख बंद कर ली |
हमारी जीप धीरे २ रेंगने लगी |वनराज पर इसका कोइ प्रभाव नहीं था |वह तो अपने आराम में इतना ब्यस्त था कि किसी का आना जाना उसके लिए बेमानी था |उसका आकार प्रकार देखते ही बनता था |सच में वन का राजा अपने आप में बेमिसाल था |
फिर जीप ने गति पकड़ी और आधे घंटे बाद हम गिरी अभयारण्य के बाहर थे |आज भी वह द्रश्य आँखों के सामने
घूम जाता है |
आशा

10 मार्च, 2010

तितली


मैं तितली रंगों से भरी
ऋतुराज क्यूँ न खेले होली
बंधन है आलिंगन है
या मन का स्पन्दन है
आखिर है यह कैसा विधान
मैं खुद ही बेसुध हो जाऊँ |
फूलों भरी वादियों में
जब विचरण करती हूँ
इस फूल से उस फूल तक
पंख फैलाकर उडती हूँ |
बच्चे बूढ़े और सभी जन
मेरे रंगों में उलझे
मन भाया फूल मुझे चाहे
मुझ पर अपना प्यार लुटाये
पैरों में लिपट चिपट जाये
खुशबू से तन महका जाये |
फिर और तेज मैं उड़ती
सुरभि से सब को भरती
वासंती बयार मुझे
खींचे अपनी ओर
फूलों से लदे पेड़ भी
ललचाते अपनी ओर |
मैं प्याली रंगों से भरी
तरह-तरह के रंग सजे
फागुन के मीठे गीत सुने
ऋतुराज मिलन को तरस रहे |
जब मैं वादी में घूमूँ
फूलों के रंग चुरा लाऊँ
अपने पंखों पर लगा उसे
सब के मन रंगती जाऊँ |
मैं तितली रंगीन
सब के मन को बहकाऊँ
प्रत्येक फूल मुझे चाहे
अपने में भरना चाहे
पर मैं बंधन से रहूँ दूर |
मौसम में खुशियाँ भर कर
केवल मन स्पंदित कर
उनके मन को बहकाऊँ
मैं तितली रंगीन
खुले व्योम में उड़ती जाऊँ |
छोटा सा जीवन मेरा
फूलों में रमती जाऊँ
मैं तितली रंगों से भरी
प्रकृति की अनमोल छवि
ऋतुराज संग खेलूँ होली |

आशा

09 मार्च, 2010

मन की बात

बिना जाने मन की बात कोई,
चाहती नहीं की तुम से कुछ कहूँ ,
कहा यदि मैंने कुछ तुमसे ,
और पूरा न हो सका तुमसे ,
यह सब नहीं होगा पसंद मुझे ,
कि मैं दंश अवमानना का सहूँ |
कहा हुआ पूरा हो तो
कहीं कुछ अर्थ निकलता है ,
यदि पूरा न हो पाया तो ,
मन अशांत विचरता है ,
फिर आता है मेरे मन में ,
कि मैं तुम से कुछ भी न कहूँ |
दुःख होने लगता है ,
अधूरी अपेक्षा रखने से ,
विश्वास टूट जाता है ,
मन चाहा न होने से |
तब कई शब्द घुमड़ने लगते हैं ,
हृदय में घर करने लगते हैं ,
कभी सोचने लगती हूँ ,
मुझमें इतनी लाचारी क्यूँ है ?
फिर मन में विश्वास जगाती हूँ ,
खुद ही सब करना होगा ,
यही मन में भरना होगा ,
तब नहीं चुभेगा दंश कोई ,
मैं नहीं चाहती बैसाखी अभी |

आशा

08 मार्च, 2010

रानू बंदरिया

राज कुमार राज बर्मन को जंगल में घूमना बहुत अच्छा लगता था |वह जंगल में घूमता और अपने को प्रकृति
के आँचल में छुपा लेता |हरियाली और पशु पक्षी उसकी कमजोरी थे |वहां जा कर उसे बहुत शांति का अनुभव होता था |
वह स्वभाव से बहुत संवेदनशील और दयालू था |वह किसी का भी दुःख सहन नहीकर पाताथा |
एक दिन जब वह घूम रहा था ,उसने एक बंदरिया को कराहते देखा |शायद किसी शिकारी के बाण से वह घायल होगयी थी |राज ने तुरंत बंदरिया को गोद में उठा कर पैर में से तीर निकाला और उपचार किया |फिर उसे उसके कोटर तक छोड़ आया |
पर रात भर वह सो न सका |बारबार उसे बंदरिया का ही ख्याल सताता रहा |सुबह होते ही वह जंगल की ओर
चल दिया |रानू बंदरिया बाहर बैठी थी |जैसेही उसने अपने बचाने वाले को देखा ,तुरंत उसे बुलाया और अपने कोटर में आने को कहा |
जैसेही राजकुमार अंदर आया ,वहाँ की सुंदरता देख कर हतप्रभ रह गया |उसने देखा की एक बहुत सुंदर लड़की
उसके सामने बैठी थी और उसके हाथ में व् एक पैर में वही पट्टी बंधी थी |बहुत आश्चर्य से राज ने देखा और उसका नाम पूंछा | पहले तो वह शरमाई फिर कल के लिए धन्यवाद दिया और अपना नाम रानू बताया |
राज से रहा नहीं गया और बन्दर का रूप धरने का कारण जानना चाह |रानू ने कहा ,"मैं भी आप के समान ही
एक राजकुमारी हूँ |पहले बहुत सुख से रही |एक दिन जब मैं जंगल में घूम रही थी एक राक्षस ने मुझे पकड़ कर
यहां कैद कर लिया |तभी से मैंयही पर कैद हूं "|
राजकुमार रानू की सुंदरता पर ऐसा मोहित हुआ की शादी की इच्छा उसके मन मैं उठने लगी |वह अक्सर
वहां जाने लगा और एक दिन शादी का प्रस्ताव रखा | रानू भी मन ही मन उससे प्रेम करने लगी थी |
इस लिए उसने एक शर्त पर शादी के लिए हां की |उसने कहा,"मैं दिन भर बन्दर के ही रूप मैं रहूंगी "|राज को क्या
आपत्ति हो सकती थी |दोनों ने शादी कर ली |
राजकुमार अपनी पत्नी के साथ अपने घर आ गया |सबने बंदरिया को देख बहुत हंसी उड़ाई |दूसरे दिन रानी
ने सब को बुलवाया और एक एक बोरा गेहूं बीनने को दिए |रानू ने अपने हिस्से के गेहूं अपने कमरे में रखवालिए
|रात को वह उठी और अपना चोला उतार कर गेहूं बीन कर फिरसे अपने पलंग पर सो गयी |बिने हुए
गेहूं देख कर सब को बहुत आश्चर्य हुआ | तीसरे दिन चक्की पर आटा पीसना था |रात को उठ कर उसने अपना चोला
उतारा और चक्की पीसने लगी |रानी ने धीरे सेखूटी पर
टंगा चोला उठा कर छुपा दिया |
जैसेही काम समाप्त हुआ रानू ने अपना चोला खोजा |वह नहीं मिला |उसे बहुत गुस्सा आया | वह रोने लगी |
इतने में राजकुमार की नींद खुल गई |राज ने रोने का कारण पूंछा | जब सारा माजरा समझा ,जोर जोर से हँसने लगा
और रानू को समझाया की अब इस रूप मेंरहने की क्या आवश्यकता है ,राक्षसतो कब का मर चूका |रानू को विश्वास
नहीं हुआ |धीरे धीरे जब राज की बात समझ आई तब बड़ी मुश्किल से वह सोई |
सुबह उठ कर उसने सबके पैर छुए |सबने उसे बहुत सारे उपहार दिए और ढेरसा आशीर्वाद| यह सच है की कोई
भी काम सरलता से किया जा सकता है यदि मन में पक्की इच्छा हो |अब वे दोनों जंगल में जाकर प्रकृति का आनंद
लेने लगे और जरूरत मंद की सेवा करने लगे |रानू अब बहादुर होगई थी और किसी से नहीं डरती थी |
आशा